हमारा स्वास्थ्य और अंधविश्वास “एक समीक्षा”

चिकित्सा विज्ञान निरंतर विकसित हो रहा है, और रोगों की बेहतर समझ और प्रबंधन के लिए आगे बढ़ रहा है। हालांकि, इतने विकास के बावजूद भी कई लोग अंधविश्वास, गैर-वैज्ञानिक सोच और दैवीय शक्तियों में विश्वास रखते हैं। हम अभी भी सांस्कृतिक रूप से निर्धारित बंधनों और आस्थाओं से बंधे हुए हैं। आधुनिक युग में अंधविश्वास भी आधुनिक हो रहा है, जैसे अंधविश्वास युक्त सामग्री सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर भी भरपूर देखने को मिलती है और बखूबी प्रचारित की जाती है। इन प्रचारों से प्रेरित होकर लोग कई तरह के अवैज्ञानिक नुस्खे अपनाते हैं, जिससे कई बीमारियों के उपचार और नियंत्रण पर खराब असर होता है।

अंधविश्वास ही गैर-वैज्ञानिक व्यवहार का कारण है। चिकित्सा विज्ञान को लेकर अंधविश्वास से जुड़ी कई धारणाएं एवं घटनाएं हास्यास्पद तो हैं ही, स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक भी हैं। क्योंकि यह लोगों को प्रामाणिक या विज्ञान सम्मत चिकित्सा के लाभ से वंचित रखती हैं। जिससे बीमारियां गंभीर और जानलेवा हो जाती हैं।

यह सच है कि कई आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाएं प्राचीन परंपराओं पर आधारित हैं, और उनके प्राचीन तरीकों में समानताएं हैं। “युक्ति व्यापाश्रय बनाम दैव व्यापाश्रय” की अवधारणाओं और उपायों द्वारा चरक ने प्राचीन चिकित्सा को एक व्यवस्थित और तर्क संगत रूप में स्थापित करने का प्रयास किया था। परन्तु दुर्भाग्यवस इसे वैज्ञानिक रूप से और अधिक विकसित नहीं किया जा सका।

आधुनिक चिकित्सा के दौरान अंधविश्वास और पारंपरिक उपचार पद्धतियों, नुस्खे आदि का हस्तक्षेप अक्सर देखा जाता है। इसलिए यह जानना बहुत जरूरी है कि विभिन्न संस्कृतियों की ये प्रथाएं और अंधविश्वास स्वास्थ्य समस्याओं को कैसे बढ़ावा देती हैं। किस तरह इलाज में देरी और लापरवाही की ओर धकेलती हैं।

दैवीय शक्तियों पर आस्था एवं अंधविश्वास
अंधविश्वास उन घटनाओं एवं तथ्यों पर विश्वास करना, एवं उन तर्कहीन सामाजिक प्रथाओं एवं धारणाओं में बंधे रहना है, जो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध नहीं किए जा सकते। विज्ञान से परे घटनाओं को अक्सर दैवीय शक्तियों या चमत्कारों का नाम देकर लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। यही अंधविश्वास युक्त आस्था और धारणा लोगों के सोचने और व्यवहार करने के तरीके को नियंत्रित और प्रभावित करते हैं।

सन 2000 में वैज्ञानिकों ने मस्तिष्क में एक ऐसे केंद्र की खोज की जो भगवान, दैवीय शक्तियों एवं अंधविश्वास में आस्था रखने को प्रेरित करता है। मनुष्य जब भी ऐसी परिस्थिति में आ जाता है जहां वह अपने आप को असहाय एवं लाचार पाता है तो, तर्क संगत एवं वैज्ञानिक व्यवहार की जगह अंधविश्वासों की तरफ आकर्षित होता है।

विभिन्न आस्थाओं या धारणाओं में विरोधाभास है, तथा ये एक दूसरे का खंडन करते हैं। इसलिए इनकी सत्यता संदेहास्पद है।
उदाहरण के लिए, भगवान में विश्वास! कुछ लोगों का मानना है कि एक ही ईश्वर है; अन्य जैसे कि मैनिचियन मानते हैं कि दो ईश्वर हैं; अन्य का मानना है कि देवताओं के समूह हैं, या कई देवता होते हैं।
यह जानते हुए भी लोग अशिक्षा, भय, गलत धारणाओं, चिंता, प्राचीन परंपराओं एवं प्रथाओं के कारण इन बातों पर भरोसा कर लेते हैं।

चिकित्सा प्रणाली पर अंधविश्वास के प्रभाव पर शोध
चिकित्सा विज्ञान की प्रगति के साथ अंधविश्वास का स्तर कम तो हो रहा है, फिर भी इसका आधुनिक वैज्ञानिक चिकित्सा प्रक्रिया को प्रभावित करना जारी है।

जापान में हुए एक अध्ययन के अनुसार, अंधविश्वासी धारणाओं ने अस्पताल से छुट्टी के निर्णय को प्रभावित किया, जिससे उपचार के खर्च में वृद्धि हुई। मरीजों ने डॉक्टर से परामर्श करने और अस्पतालों से छुट्टी लेने के लिए किसी खास या शुभ दिन को चुना, और निर्धारित दिनों से अधिक समय तक अस्पताल में रहने को प्राथमिकता दी।

चंडीगढ़ के एक अध्ययन के अनुसार, लगभग दो-तिहाई लोगों ने अपने मानसिक बीमारी के लक्षणों को जादू-टोना,
ग्रह नक्षत्र, पिछले जीवन में बुरे कर्म, आत्मा के प्रवेश (ओपारी कसर), बुरी आत्माओं, भूत-प्रेत और देवी देवता का प्रकोप आदि के कारण माना। और यह भी माना कि उपचार के लिए केवल प्रार्थना करना या जादुई-धार्मिक अनुष्ठान करना ही पर्याप्त है, अतः कई मरीज उचित उपचार से वंचित रहे।

इसी तरह के निष्कर्ष छत्तीसगढ़ के एक अध्ययन में भी पाए गए, जिसमें सिज़ोफ्रेनिया के रोगियों के उपचार में देरी के लिए कई अन्य कारकों के साथ अंधविश्वास को एक कारक के रूप में पहचाना गया।

गाम्बिया के एक अध्ययन के अनुसार, कई लोगों का अभी भी मानना है कि मलेरिया अलौकिक या दैवीय प्रकोप (जादू-टोना या जिन्न) या दूषित हवा के कारण होता है।

इसी तरह कई अज्ञात कारणों से होने वाले एंडोक्राइन विकारों के इलाज के लिए वैज्ञानिक दिशानिर्देश उपलब्ध हैं, लेकिन अंधविश्वास के कारण उपचार में लापरवाही एवं विलंब देखा जाता है।

अंधविश्वास कई चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा सामना की जाने वाली एक आम समस्या है। अतः इस लेख में हम स्वास्थ्य पर इनके प्रभावों पर चर्चा करेंगे।

अंधविश्वास का स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव
रोजमर्रा के संघर्षों के साथ दीर्घकालिक विकारों की भावनात्मक चुनौतियां पीड़ित लोगों को अंधविश्वासों की ओर खींच सकती हैं। साथ ही अंधविश्वासों के कारण कई बीमारियों के उचित इलाज में लापरवाही एवं विरोध भी देखा जाता है।
एंडोक्राइन विकार दीर्घकालिक होते हैं, अतः इनके इलाज में अंधविश्वास का हस्तक्षेप अक्सर देखा जाता है।
उदाहरणतः डायबिटीज जैसी दीर्घकालिक बीमारियों में उचित इलाज छोड़कर लोग गुड़मार एवं कड़वी चीजें, करेले का जूस, जामुन की गुठली आदि का स्तेमाल करने लगते हैं, कई लोग झाड़ फूंक, या टोने टोटके आदि के चक्करों में भी पड़ जाते हैं। इससे उचित इलाज में देरी होती है, और ये लोग डायबिटीज जनित कॉम्प्लिकेशन के शिकार हो जाते हैं। प्रायः देखा गया है कि डायबिटीज के मरीज इंसुलिन की आवश्यकता होने पर भी इसे स्वीकार नहीं करते। उनके मन में यह भ्रांति होती है कि इंसुलिन अंतिम उपचार है अथवा एक बार इंसुलिन लेने पर उसकी आदत लग जाएगी।

थायरॉइड विकार और गॉइटर आम एंडोक्राइन विकार हैं। परन्तु इसे ठीक करने के लिए पारंपरिक उपचार जैसे थायरॉइड की बीमारी में सुबह खाली पेट धनिए का पानी पीने से लाभ होने का भ्रम फैलाया जाता है।

इसके अलावा, जानकारी का अभाव और सामाजिक शर्मिंदगी कुछ ऐसी बाधाएं हैं, जिनके कारण लोग अपनी बीमारी या समस्या के लक्षणों को छुपाते हैं, और आवश्यक उपचार कराने से भागते हैं। इसलिए इन एंडोक्राइन विकारों जैसे डीएसडी, बांझपन और जेनेटिक सिंड्रोम को लेकर यह नासमझी उपचार में देरी या लापरवाही का प्रमुख कारण है। इससे जटिलताओं और मृत्यु दर में वृद्धि हो सकती है।

कई लोगों में यह भ्रम है कि डायबिटीज की दवाइयों के सेवन से गुर्दे खराब हो सकते हैं।

थायरॉइड की बीमारी में ली जाने वाली दवाइयों के बारे में कई लोगों को भ्रम होता है कि, इन दवाइयों को लंबे समय तक लेने से शरीर पर खराब असर पड़ता है।

संतान न होने के कारण उपचार के लिए आई दंपति में पुरुष में शुक्राणु की कमी या अभाव बांझपन का एक प्रमुख कारण होता है। परन्तु समाज की प्रथानुसार हमेशा महिला को ही रोगी मान लिया जाता है।

आज विज्ञान ने हमें कई जानलेव बीमारियों से बचाव के लिए टीके /वैक्सीन उपलब्ध करा दिए हैं। परन्तु दुर्भाग्य बस देश के कई हिस्सों में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में लोग बच्चों को वैक्सीन नहीं लगवाते। उनका मनना है कि इनमें से कई बीमारियां दैवीय प्रकोप या भगवान की इच्छा है। यही कारण है जिससे चेचक (स्मॉल पॉक्स) को दशकों तक दैवीय प्रकोप माना जाता रहा। एवं ग्रामीणों द्वारा चेचक के टीके का विरोध किया गया।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में मानसिक रोगों एवं मिर्गी जैसे रोगों का बहुत अच्छा इलाज उपलब्ध है। फिर भी प्रायः देखा गया है कि लोग इस प्रकार के रोगों को दैवीय प्रकोप मानकर झाड़ फूंक, जादू टोना, एवं पीर फकीर से इलाज करवाने को प्राथमिकता देते हैं। वे इलाज के रूप में ताबीज देना, भभूती (अनुष्ठान/हवन आदि की राख) देना आदि गैर वैज्ञानिक तरीके अपनाते हैं। कई स्थानों पर तो मिर्गी के झटके आने पर लोग मरीज को इलाज के तौर पर गंदे जूते या मोजे सुंघाने जैसे घृणित तरीके बताते हैं। साथ ही मिर्ची जलाकर रोगी को धूनी देना, एवं गर्म धातु की रॉड से शरीर को दागने जैसे खतरनाक कृत्य भी किए जाते हैं।

खून की कमी/एनीमिया के मरीजों में अक्सर यह भ्रांति पाई जाती है कि, लाल रंग के फल एवम सब्जियों जैसे चुकंदर के जूस और अनार का जूस आदि के सेवन से खून की कमी दूर हो सकती है।

स्वास्थ्य पर अंधविश्वास के मिले जुले प्रभाव
कुछ मनोविकार एवं अज्ञात कारणों से होने वाली बीमारियों को अक्सर भाग्य जनित व्याधि या दैवीय प्रकोप मान लिया जाता हैं। इन प्रकोपों को शांत करने के लिए जादू टोना, झाड़ फूंक या अन्य अनुष्ठान आदि में कई लोग विश्वास रखते हैं। इससे बीमारी के नियंत्रण का भ्रम पैदा हो सकता है या किया जाता है।
इससे निम्नांकित लाभ हो सकते हैं…
अनिश्चितताओं और खतरों की स्थिति में सुरक्षा और सांत्वना, आत्मिक संतुष्टि और भावनात्मक शांति आदि मिलना।
उन चीजों के लिए काल्पनिक स्पष्टीकरण मिलना, जो हमें समझ में नहीं आतीं।
कुछ मनोवैज्ञानिक लाभ, जिससे बीमारी के नकारात्मक प्रभाव में कमी देखी जाती है।

साथ ही दैवीय दंड या पाप पुण्य की धारणा “जिसका तात्पर्य है, कि देवी देवताओं द्वारा लोगों को अपराधों या नियमों का उल्लंघन करने के लिए दंडित किया जाएगा। यह विश्वास विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों में व्यापक रूप से देखा जाता है, जो अक्सर सामाजिक व्यवहार को आकार देने और सहयोग को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
ठीक इसी तरह यह धारणा बीमार व्यक्ति को वैज्ञानिक दिशानिर्देशों का पालन करने के लिए प्रेरित और अनुशासित कर सकती है।
मनोबल बढ़ाकर आंतरिक होमियोस्टेसिस में मदद कर सकती है। अज्ञात कारणों से होने वाले एंडोक्राइन विकारों के नियंत्रण में सहयोगी हो सकती है।
हालांकि यह सब केवल प्लेसीबो इफेक्ट की तरह होता है, एवं
कभी कभी इन धारणाओं से अवसाद और तनाव भी पैदा हो सकता है। इसलिए इन सभी के चक्कर में न पड़कर, प्रामाणिक चिकित्सा को प्राथमिकता देना चाहिए।

मधुमेह का उपचार वैश्विक स्तर पर सामाजिक और आर्थिक बोझ से जुड़ा हुआ है। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार विश्वास-आधारित दृष्टिकोण जैसे कि धार्मिक प्रथाएं एवं आध्यात्मिक क्रियाकलाप और स्वास्थ्य परिणामों के बीच एक सकारात्मक संबंध है। परन्तु इस विषय पर और सटीक शोधों की आवश्यकता है।
यह विशेष रूप से मधुमेह जैसी स्वास्थ्य समस्याओं में मरीज को संयमित आहार विहार के लिए प्रेरित कर मधुमेह नियंत्रण में सहयोगी हो सकता है।

निष्कर्ष
स्वास्थ्य से संबंधित गलत जानकारी जानलेवा भी हो सकती हैं। इसलिए, चिकित्सकों और मरीजों का इन अंधविश्वासों को समझना महत्वपूर्ण है, ताकि गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित की जा सके।
आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था में उपचार के लिए निरंतर शोध व वैज्ञानिक साक्ष्यों के आधार पर दवाईयां एवं उपचार पद्धतियां विकसित की जाती हैं। इसीलिए यह उपचार पद्धतियां सबसे ज्यादा विश्वशनीय, प्रभावकारी एवम् सुरक्षित मानी जाती हैं। हम पाठकों से यही चाहेंगे कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति पर भरोसा करें व अंधविश्वासों के चक्कर में अपनी बीमारी को बिगड़ने न दें।

Authors
Dr. Jaideep khare
Dr. Saumya Gupta
Dr. Sushil Jindal

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