यह तो घर का बना है

हमारी जिंदगी का वह सब से कड़वा दिन था जब डॉक्टर ने हम से कहा कि आप की शुगर बहुत हाई हो गई है अब मीठा खाना बंद करना पड़ेगा। हमारे तो होश उड़ गए। बताइए, एक हिन्दुस्तानी व्यक्ति को आपने फरमान सुना दिया कि मीठा खाना बंद कर दे? मीठे के बिना जीना भी कोई जीना है? पर क्या करते ? घर वालों ने भी सारी मीठी वस्तुएँ हम से छुपा कर रखनी और खानी शुरू कर दी। हमारी जीभ ही नहीं आँखें भी मीठी वस्तुएँ देखने को तरस गईं। हमारी हालत उस प्रेमी की भाँति हो गई जिसे उसकी प्रेमिका से मिलने की मनाही हो गई हो। लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, आदि प्रेमी जनों के दर्द को अब हम अपने दिल में महसूस कर रहे थे।

खैर! डॉक्टरों की चेतावनी और घर वालों का कड़ा रूख धीरे-धीरे असर करने लगा। हम जलेबी, रसगुल्ले, मालपूए का स्वाद ठीक उसी तरह भूलने लग गए जैसे हारा हुआ प्रेमी अपनी प्रेमिका के चेहरे को भुलाने की व्यर्थ कोशिश में लगा रहता है। हमारे घर वाले भी उसी तरह खुश हो रहे थे जैसे हारे हुए प्रेमी के घर वाले मन ही मन यह सोच कर प्रफुल्लित होते हैं कि चलो अब लड़का लाइन पर आ गया है, मगर दिल ही दिल में यह सोचकर डरते रहते हैं कि यह नादान कहीं सीता मैया की तरह हमारी खींची लक्ष्मण रेखा पार न कर जाए। इसीलिये घर में ही नहीं ब्याह – शादी, पार्टी वगैरह में हम पर गिद्ध नज़र रखी जाती, इन लोगों की इन्ही बेजा हरकतों की वजह से हमारे चेहरे पर लाचारी का भाव परमानेंट होता जा रहा था।

इस लाचारगी के भाव का हमें एक बहुत बड़ा सामाजिक लाभ प्राप्त होने लगा, ठीक वैसे ही जैसे आप को बचत पूँजी पर ब्याज मिलता है। हमारी लाचारगी को देखकर लोग हम से खूब सिम्पेथी यानि दयाभाव रखने लगे। जहाँ जाते लोग मीठे का सब्सीट्यूड ढूंढ़ने में लग जाते, उन भोले प्राणियों को यह समझ में नहीं आता था कि मीठे का स्थान कौन ले सकता है? यह तो हमारे भोजन में भगवान का स्थान रखता है। एकदम उच्च। सर्वोच्च।

लेकिन हमारे शुभेच्छुओं में कुछ ऐसे भी हैं जो हमारे सामने कचौड़ी- समोसा, रसगुल्ला, जलेबी परोस कर बड़े प्रेम से आग्रह करते, ‘अरे खा लो इससे कोई नुकसान नही होगा, यह तो सब घर में बना है, बाहर से कुछ भी नही मँगवाया है, हमें मालुम है तुम्हे शुगर की बीमारी है, तुम्हे तला हुआ और मीठा खाने की मनाही है–‘

जब हम उनकी बात काट कर कहते, ‘अजी घर का हो या बाहर का, है तो तला हुआ और मीठा’। पूछने को बहुत मन होता – ‘क्यों जी, क्या आपका तेल तेल नहीं पानी है, क्या आप के यहाँ की शक्कर मीठी नहीं – नमकीन होती है?’ मगर चुप्पी लगा जाते।

हमें चुप देख वह पुनः आग्रह करते, ‘बताया न! इससे नुकसान नहीं होगा, यह घर का बना है, हमने इतनी मेहनत से बनाया है, अब खा भी लो- कुछ नही होगा तुम्हे….’

‘कुछ नहीं होगा,’ शब्द हमारे दिल पर तीर की तरह चुभ गये! वातावरण को हल्का करने के लिए हमने हंस कर कहा- ‘यह क्या गारण्टी है कि हमे कुछ नहीं होगा? हम हाई शुगर से मर गये तो?’

सुनते ही मेजबान नाराज हो गये। बोले, ‘वाह, आज तक कोई मीठा खाने से मरा है क्या? हम ने तो तुम्हारे लिये इसलिए यह सब बनाया क्यों कि हमें डायबेटिक लोगों पर बड़ी दया आती है। देखो न, बाकी सब बीमारियों में मीठा खाने पर रोक नहीं होती, एक यह ही ऐसी बीमारी है जो बंदे को तरसा-तरसा कर मारती है। कितना दिल दुखता है यह देखकर कि जब सब लोग मीठा और तला हुआ लपालप भकोस रहे होते हैं शुगर वाला बंदा बेचारा भूखे भिखारी की तरह उन्हें देख रहा होता है। मीठे के लिए कोई इतना तरस कर दुनिया से जाए हम से तो नहीं देखा जाता। इसीलिए तो हम तुम्हे खिला रहे हैं ताकि तुम्हारी आत्मा तृप्त हो कर दुनिया से जाए—,

मैं भोचक्का हो उनकी तरफ देख रहा था। अचानक मुझे लगा कि मैं विश्वामित्र हूँ और वह मेनका, जो मेरी मीठा खाने की तपस्या को भंग करने के लिए भाँति-भाँति के प्रलोभन दे रही है, या कि यह आजमा रही है कि मैं उनके मोहक जाल में फंसता हूँ या नहीं। स्थिति गंभीर थी। मीठा देखकर जीभ लपलपा रही थी, सैलाइवा मुख में समा नहीं रहा था। मेरी अतृप्त आत्मा हाथ पसारे खड़ी थी। मगर मेरे घर वालों की आँखे मुझे घूर रही थीं। डॉक्टर की चेतावनियाँ सिर पर तलवार बन लटक रही थीं। मेजबान की मनुहार बड़ती जा रही थी। उनके मंत्रजाप की आवाजें लगातार कानों में बज रहीं थीं-

घर का बना है, खालो कुछ नहीं होगा,
घर का बना है, खालो कुछ नहीं होगा —

मैं तो कानों पर हाथ रखकर, सिर पर लटकी तलवारों से बचता-बचाता उनके घर से भागा ।

आप को भी सलाह दे रहा हूँ, जहाँ आप को यह कह-कह कर खिलाया जा रहा हो- ‘घर का बना है खा लो, कुछ नहीं होगा–‘, वहाँ से सिर पर पैर रख कर भागने में ही भलाई है।

सुमन ओबेराय
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