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नॉन एल्कोहॉलिक फैटी लिवर डिसीज

पाठको, आपको ज्ञात ही होगा कि हमारे शरीर के पाचन तंत्र का एक मुख्य अवयव लिवर होता है। लिवर एक अंग और ग्रंथि दोनों है। यह सैकड़ों महत्वपूर्ण शारीरिक कार्य करता है जो मानव जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं। यह पेट के दाहिने-ऊपरी हिस्से में डायाफ्राम के नीचे स्थित होता है, और मानव शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि है, जो पित्त (Bile) का निर्माण करती है। पित्त (Bile) हीपेटिक डक्ट द्वारा गॉल ब्लैडर में पहुंच कर संचित होता रहता है। यहां से Bile डक्ट द्वारा आँतों में पहुँचकर भोजन के पाचन में सहायक होता है।
आँतों में भोजन के पाचन से प्राप्त भोज्य पदार्थों के सूक्ष्म रूप को पोर्टल वैन द्वारा अवशोषित कर लिवर में ही पहुँचाया जाता है। लिवर में ही सभी भोज्य पदार्थों के रस का मेटाबॉलिज्म संपन्न होता है, जिससे शरीर के लिए जरूरी प्रोटीन, फैट, और कार्बोहाइड्रेट का संश्लेषण, संचय, और उत्सर्जन होता है। इस कार्य के लिए लिवर में अनेकों एंजाइम्स का उपयोग होता है, ये एंजाइम्स भी लिवर स्वयं निर्मित करता है।
अतः हम जो भोजन ग्रहण करते हैं वह हमारे रक्त में एवम् अन्य अंगों तक लिवर से होकर ही गुजरता है, एवम् प्रसंस्कृत होता है। इस तरह शरीर का पोषण पूरी तरह लिवर पर ही निर्भर है, अतः यह हमारे जीवनीय अंगो (Vital Organ) में से एक महत्वपूर्ण अंग है।

हमारे शरीर के विभिन्न अंगों में जिस तरह विकृति, एवम् बीमारियां होती हैं, उसी तरह लिवर में भी विभिन्न तरह के विकार या बीमारियां हो सकती हैं। उन्ही में से एक है फैटी लिवर डिसीज।
आइए जानते हैं क्या है फैटी लिवर डिसीज?
इस बीमारी के नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि यह क्या समस्या है, फैटी लिवर की स्थिति में लिवर में अत्यधिक मात्रा में वसा का जमाव हो जाता है। जिससे लिवर का आकार बड़ा हो जाता है, सूजन आ जाती है। इससे लिवर के ऊतकों को क्षति पहुंचती है, और लिवर के सामान्य कार्य में अवरोध उत्पन्न होने लगता है। फैटी लिवर के कारणों के आधार पर इसे दो प्रकारों से जाना जाता है…..

  1. एल्कोहॉलिक फैटी लिवर डिसीज…
    लिवर की इस समस्या का कारण अत्यधिक शराब सेवन है। ऐसे में रोगी शराब का सेवन जारी रखता है तो उसके लिवर को अत्यधिक क्षति हो सकती है, लिवर खराब भी हो सकता है
  2. नॉन एल्कोहॉलिक फैटी लिवर डिसीज…
    पिछले कुछ वर्षों में यह पाया गया है, कि बड़ी संख्या में ऐसे रोगी हैं जो बहुत कम शराब पीते हैं या शराब नहीं पीते हैं, लेकिन फिर भी उनके लिवर में अतिरिक्त वसा का जमाव हो रहा है। अतः शराब के सेवन न करने पर भी अन्य कारणों से फैटी लिवर हो रहा है, इस विकार को नॉन-एल्कोहॉलिक फैटी लिवर डिजीज (NAFLD) के रूप में जाना जाता है। इस प्रकार के फैटी लिवर से लिवर में सूजन (सूजन), लिवर स्कारिंग (सिरोसिस), लिवर कैंसर, लिवर की विफलता और मृत्यु भी हो सकती है। आजकल नॉन-एल्कोहॉलिक फैटी लिवर डिजीज के मामले बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। विभिन्न अध्यनों का निष्कर्ष है कि लगभग 5 से 20 प्रतिशत तक भारतीय नॉन-एल्कोहलिक फैटी लिवर डिजीज से पीड़ित हैं।

क्यों होती है नॉन-एल्कोहॉलिक फैटी लिवर डिजीज?
नॉन-एल्कोहॉलिक फैटी लिवर डिजीज हर उम्र के पुरुषों एवं महिलाओं को हो सकती है। बच्चों से लेकर बुजुर्गो सभी को यह समस्या हो सकती है।
नॉन-एल्कोहॉलिक फैटी लिवर डिजीज के प्रमुख कारण हैं….
वजन का बढ़ना
अत्यधिक वसा युक्त भोजन
अधिक कार्बोहाइड्रेट युक्त भोजन
सुस्त जीवन शैली
मधुमेह आदि।
इन सभी में मोटापा एवं मधुमेह नॉन-एल्कोहॉलिक फैटी लिवर डिजीज के बड़े कारण माने जाते हैं। मोटापा और मधुमेह जिस तेजी से बढ़ रहे हैं उससे लगता है कि, आने वाले वर्षों में फैटी लिवर डिज़ीज मौत का एक प्रमुख कारण बन सकता है।

फैटी लिवर आमतौर पर निम्नलिखित चरणों के माध्यम से आगे बढ़ता है:

साधारण फैटी लिवर
सूजन के साथ फैटी लिवर (NASH या नॉन-अल्कोहिलक स्टेटोहेपेटाइटिस के रूप में जाना जाता है
फैटी लिवर जिसमे लिवर की स्कार्रिंग हो या लिवर सख्त हो जाये (जिसे लिवर सिरोसिस भी कहा जाता है।

ऐसी फैटी लिवर डिज़ीज जो कि मोटापे से सम्बन्धित होती है, इसका प्रमुख कारण इन्सुलिन रेजिस्टेंस को माना जाता है। इंसुलिन रेजिस्टेंस का संबंध अनेक दूसरी जीवन शैली संबंधित बीमारियों जैसे डायबिटीज टाइप 2, बीपी, हृदय रोग पैरालिसिस एवं पॉलीसिस्टिक ओवरी सिंड्रोम से भी है। जब कोई व्यक्ति जरूरत से ज्यादा खाना खाता है एवं शारीरिक व्यायाम नहीं करता तो ग्रहण की गई अतिरिक्त कैलोरीज़ चर्बी के रूप में लिवर में इकट्ठी होने लगती हैं। यह अतिरिक्त चर्बी (फैट) लिवर की कार्यक्षमता को प्रभावित करने लगती है एवं इंसुलिन रेजिस्टेंस को और बढ़ाने लगती है। इंसुलिन रेजिस्टेंस बढ़ने से फैटी लिवर से ग्रसित मरीज को डायबिटीज, बीपी एवं हार्ट अटैक का खतरा बढ़ जाता है।
वहीं लिवर में मौजूद अतिरिक्त चर्बी लिवर में सूजन पैदा करने लगती है जिसे ठीक करने के लिए लिवर में फाइब्रोसिस होने लगती है। जो धीरे धीरे लिवर सिरोसिस जैसी जानलेवा बीमारी का रूप ले लेती है। यही नहीं अतिरिक्त चर्बी लिवर में कैंसर का कारण भी बन सकती है।
डायबिटीज के 60 से 70 प्रतिशत लोगों में फैटी लिवर डिज़ीज पाई जाती है।
मोटे लोगों में भी लगभग 60 से 70 प्रतिशत लोगों में फैटी लिवर डिज़ीज पाई जाती है।
दुर्भाग्य से मोटे बच्चों में भी फैटी लिवर देखा जा रहा है, जो इन बच्चों को आगे चलकर डायबिटीज एवं हार्ट अटैक का कारण बनता है।

फैटी लिवर डिज़ीज के लक्षण
आम तौर पर इसके कोई लक्षण नहीं दिखते, जब तक कि लिवर बहुत ज्यादा खराब न हो जाए या सिरोसिस न हो जाए।
फैटी लिवर डिज़ीज होने का खतरा मोटापे एवं डायबिटीज के मरीजों को अधिक होता है। अतः ऐसे मरीजों को विशेषज्ञ की निगरानी में नियमित जाँच कराते रहना चाहिए, ताकि गंभीर समस्या होने से पहले ही लिवर डिज़ीज का पता चल सके।

फैटी लिवर डिज़ीज का निदान (जाँचें):
फैटी लिवर डिजीज (Fatty Liver Disease) की जाँचों के लिए, आपके चिकित्सक खून की जाँच, इमेजिंग टेस्ट (जैसे अल्ट्रासाउंड, सीटी स्कैन, एमआरआई) और कभी-कभी लिवर बायोप्सी (Liver Biopsy) कराने की सलाह दे सकते हैं। आजकल फाइब्रो स्कैन नामक एडवांस जाँच भी उपलब्ध हैं।
जाँच प्रक्रिया:

  1. खून की जाँच:
    लिवर फंक्शन टेस्ट (Liver Function Tests) नामक खून की जाँच और अन्य जाँचों के माध्यम से लिवर की स्थिति और कार्य क्षमता का पता किया जाता है।
  2. Fib4 स्कोर टेस्ट:
    यह एक फॉर्मूला होता है जिसमें खून में की जाने वाली जाँचें SGOT, SGPT और प्लेटलेट काउंट का उपयोग होता है। यह स्कोर लिवर खराब होने व लिवर में फाइब्रोसिस होने की स्थिति को दर्शाता है।
  3. फाइब्रो स्कैन:
    फाइब्रो स्कैन लिवर की जाँच का सबसे सटीक टेस्ट मन जाता है। जिसमें लिवर में बढ़ी हुई चर्बी की मात्रा और फाइब्रोसिस की स्थिति का सटीकता से पता चलता है।
  4. इमेजिंग टेस्ट:
    अल्ट्रासाउंड: यह जाँच लिवर में वसा की मात्रा और लिवर के आकार का पता लगाने के लिये कि जाती है। इसे अल्ट्रा सोनोग्राफी भी कहा जाता है।
    सीटी स्कैन: अल्ट्रासाउंड द्वारा लिवर की स्थिति स्पष्ट न होने पर लिवर की विस्तृत और अधिक स्पष्ट तस्वीरें प्राप्त करने के लिए इस जाँच की जरूरत पड़ती है।
    एमआरआई: यह और अधिक उन्नत जाँच है, जिससे लिवर में वसा और फाइब्रोसिस (निशान) का पता लगाया जाता है।
  5. लिवर बायोप्सी: यदि आवश्यक हो, तो लिवर का एक छोटा सा नमूना निकालकर माइक्रोस्कोप से जाँच की जाती है।

फैटी लिवर डिज़ीज का उपचार:
इसका उपचार रिस्क फैक्टर्स को कम करना और जीवन शैली में सुधार करने से आरंभ होता है जैसे…
वजन का नियंत्रण, वसा रहित भोजन करना, भोजन में कम कार्बोहाइड्रेट लेना, सक्रिय जीवन शैली अपनाना, व्यायाम करना, एवं मधुमेह नियंत्रण रखना आदि शामिल हैं।
पांच से 10 प्रतिशत वजन कम करने से लिवर में फैट की मात्रा घटने लगती है। 10 प्रतिशत से अधिक वजन कम करने से फाइब्रोसिस की स्थिति भी सुधरने लगती है।
मधुमेह में उपयोग की जाने वाली नई दवाइयाँ जैसे GLP 1 एगोनिस्ट एवं SGLT2 इन्हिबिटर आदि मरीज का वजन कम करने में सहायक होती हैं और फैटी लिवर को कम करती हैं।
मधुमेह का प्रभावी नियंत्रण भी फैटी लिवर डिज़ीज को कम करने में सहायक होता है।

जैसा कि हम सभी जानते हैं, बीमारी से बचाब बीमारी के उपचार से बेहतर होता है। अतः फैटी लिवर डिज़ीज से बचे रहते के लिए हमें वजन और मधुमेह को नियंत्रण में रखना चाहिए। कम वसा और कम कार्बोहाइड्रेट वाला संतुलित आहार लेना चाहिए। साथ ही नियमित व्यायाम करना चाहिए।

डॉ. सुशील जिंदल

हमारा स्वास्थ्य और अंधविश्वास “एक समीक्षा”

चिकित्सा विज्ञान निरंतर विकसित हो रहा है, और रोगों की बेहतर समझ और प्रबंधन के लिए आगे बढ़ रहा है। हालांकि, इतने विकास के बावजूद भी कई लोग अंधविश्वास, गैर-वैज्ञानिक सोच और दैवीय शक्तियों में विश्वास रखते हैं। हम अभी भी सांस्कृतिक रूप से निर्धारित बंधनों और आस्थाओं से बंधे हुए हैं। आधुनिक युग में अंधविश्वास भी आधुनिक हो रहा है, जैसे अंधविश्वास युक्त सामग्री सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर भी भरपूर देखने को मिलती है और बखूबी प्रचारित की जाती है। इन प्रचारों से प्रेरित होकर लोग कई तरह के अवैज्ञानिक नुस्खे अपनाते हैं, जिससे कई बीमारियों के उपचार और नियंत्रण पर खराब असर होता है।

अंधविश्वास ही गैर-वैज्ञानिक व्यवहार का कारण है। चिकित्सा विज्ञान को लेकर अंधविश्वास से जुड़ी कई धारणाएं एवं घटनाएं हास्यास्पद तो हैं ही, स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक भी हैं। क्योंकि यह लोगों को प्रामाणिक या विज्ञान सम्मत चिकित्सा के लाभ से वंचित रखती हैं। जिससे बीमारियां गंभीर और जानलेवा हो जाती हैं।

यह सच है कि कई आधुनिक वैज्ञानिक अवधारणाएं प्राचीन परंपराओं पर आधारित हैं, और उनके प्राचीन तरीकों में समानताएं हैं। “युक्ति व्यापाश्रय बनाम दैव व्यापाश्रय” की अवधारणाओं और उपायों द्वारा चरक ने प्राचीन चिकित्सा को एक व्यवस्थित और तर्क संगत रूप में स्थापित करने का प्रयास किया था। परन्तु दुर्भाग्यवस इसे वैज्ञानिक रूप से और अधिक विकसित नहीं किया जा सका।

आधुनिक चिकित्सा के दौरान अंधविश्वास और पारंपरिक उपचार पद्धतियों, नुस्खे आदि का हस्तक्षेप अक्सर देखा जाता है। इसलिए यह जानना बहुत जरूरी है कि विभिन्न संस्कृतियों की ये प्रथाएं और अंधविश्वास स्वास्थ्य समस्याओं को कैसे बढ़ावा देती हैं। किस तरह इलाज में देरी और लापरवाही की ओर धकेलती हैं।

दैवीय शक्तियों पर आस्था एवं अंधविश्वास
अंधविश्वास उन घटनाओं एवं तथ्यों पर विश्वास करना, एवं उन तर्कहीन सामाजिक प्रथाओं एवं धारणाओं में बंधे रहना है, जो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध नहीं किए जा सकते। विज्ञान से परे घटनाओं को अक्सर दैवीय शक्तियों या चमत्कारों का नाम देकर लोगों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। यही अंधविश्वास युक्त आस्था और धारणा लोगों के सोचने और व्यवहार करने के तरीके को नियंत्रित और प्रभावित करते हैं।

सन 2000 में वैज्ञानिकों ने मस्तिष्क में एक ऐसे केंद्र की खोज की जो भगवान, दैवीय शक्तियों एवं अंधविश्वास में आस्था रखने को प्रेरित करता है। मनुष्य जब भी ऐसी परिस्थिति में आ जाता है जहां वह अपने आप को असहाय एवं लाचार पाता है तो, तर्क संगत एवं वैज्ञानिक व्यवहार की जगह अंधविश्वासों की तरफ आकर्षित होता है।

विभिन्न आस्थाओं या धारणाओं में विरोधाभास है, तथा ये एक दूसरे का खंडन करते हैं। इसलिए इनकी सत्यता संदेहास्पद है।
उदाहरण के लिए, भगवान में विश्वास! कुछ लोगों का मानना है कि एक ही ईश्वर है; अन्य जैसे कि मैनिचियन मानते हैं कि दो ईश्वर हैं; अन्य का मानना है कि देवताओं के समूह हैं, या कई देवता होते हैं।
यह जानते हुए भी लोग अशिक्षा, भय, गलत धारणाओं, चिंता, प्राचीन परंपराओं एवं प्रथाओं के कारण इन बातों पर भरोसा कर लेते हैं।

चिकित्सा प्रणाली पर अंधविश्वास के प्रभाव पर शोध
चिकित्सा विज्ञान की प्रगति के साथ अंधविश्वास का स्तर कम तो हो रहा है, फिर भी इसका आधुनिक वैज्ञानिक चिकित्सा प्रक्रिया को प्रभावित करना जारी है।

जापान में हुए एक अध्ययन के अनुसार, अंधविश्वासी धारणाओं ने अस्पताल से छुट्टी के निर्णय को प्रभावित किया, जिससे उपचार के खर्च में वृद्धि हुई। मरीजों ने डॉक्टर से परामर्श करने और अस्पतालों से छुट्टी लेने के लिए किसी खास या शुभ दिन को चुना, और निर्धारित दिनों से अधिक समय तक अस्पताल में रहने को प्राथमिकता दी।

चंडीगढ़ के एक अध्ययन के अनुसार, लगभग दो-तिहाई लोगों ने अपने मानसिक बीमारी के लक्षणों को जादू-टोना,
ग्रह नक्षत्र, पिछले जीवन में बुरे कर्म, आत्मा के प्रवेश (ओपारी कसर), बुरी आत्माओं, भूत-प्रेत और देवी देवता का प्रकोप आदि के कारण माना। और यह भी माना कि उपचार के लिए केवल प्रार्थना करना या जादुई-धार्मिक अनुष्ठान करना ही पर्याप्त है, अतः कई मरीज उचित उपचार से वंचित रहे।

इसी तरह के निष्कर्ष छत्तीसगढ़ के एक अध्ययन में भी पाए गए, जिसमें सिज़ोफ्रेनिया के रोगियों के उपचार में देरी के लिए कई अन्य कारकों के साथ अंधविश्वास को एक कारक के रूप में पहचाना गया।

गाम्बिया के एक अध्ययन के अनुसार, कई लोगों का अभी भी मानना है कि मलेरिया अलौकिक या दैवीय प्रकोप (जादू-टोना या जिन्न) या दूषित हवा के कारण होता है।

इसी तरह कई अज्ञात कारणों से होने वाले एंडोक्राइन विकारों के इलाज के लिए वैज्ञानिक दिशानिर्देश उपलब्ध हैं, लेकिन अंधविश्वास के कारण उपचार में लापरवाही एवं विलंब देखा जाता है।

अंधविश्वास कई चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा सामना की जाने वाली एक आम समस्या है। अतः इस लेख में हम स्वास्थ्य पर इनके प्रभावों पर चर्चा करेंगे।

अंधविश्वास का स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव
रोजमर्रा के संघर्षों के साथ दीर्घकालिक विकारों की भावनात्मक चुनौतियां पीड़ित लोगों को अंधविश्वासों की ओर खींच सकती हैं। साथ ही अंधविश्वासों के कारण कई बीमारियों के उचित इलाज में लापरवाही एवं विरोध भी देखा जाता है।
एंडोक्राइन विकार दीर्घकालिक होते हैं, अतः इनके इलाज में अंधविश्वास का हस्तक्षेप अक्सर देखा जाता है।
उदाहरणतः डायबिटीज जैसी दीर्घकालिक बीमारियों में उचित इलाज छोड़कर लोग गुड़मार एवं कड़वी चीजें, करेले का जूस, जामुन की गुठली आदि का स्तेमाल करने लगते हैं, कई लोग झाड़ फूंक, या टोने टोटके आदि के चक्करों में भी पड़ जाते हैं। इससे उचित इलाज में देरी होती है, और ये लोग डायबिटीज जनित कॉम्प्लिकेशन के शिकार हो जाते हैं। प्रायः देखा गया है कि डायबिटीज के मरीज इंसुलिन की आवश्यकता होने पर भी इसे स्वीकार नहीं करते। उनके मन में यह भ्रांति होती है कि इंसुलिन अंतिम उपचार है अथवा एक बार इंसुलिन लेने पर उसकी आदत लग जाएगी।

थायरॉइड विकार और गॉइटर आम एंडोक्राइन विकार हैं। परन्तु इसे ठीक करने के लिए पारंपरिक उपचार जैसे थायरॉइड की बीमारी में सुबह खाली पेट धनिए का पानी पीने से लाभ होने का भ्रम फैलाया जाता है।

इसके अलावा, जानकारी का अभाव और सामाजिक शर्मिंदगी कुछ ऐसी बाधाएं हैं, जिनके कारण लोग अपनी बीमारी या समस्या के लक्षणों को छुपाते हैं, और आवश्यक उपचार कराने से भागते हैं। इसलिए इन एंडोक्राइन विकारों जैसे डीएसडी, बांझपन और जेनेटिक सिंड्रोम को लेकर यह नासमझी उपचार में देरी या लापरवाही का प्रमुख कारण है। इससे जटिलताओं और मृत्यु दर में वृद्धि हो सकती है।

कई लोगों में यह भ्रम है कि डायबिटीज की दवाइयों के सेवन से गुर्दे खराब हो सकते हैं।

थायरॉइड की बीमारी में ली जाने वाली दवाइयों के बारे में कई लोगों को भ्रम होता है कि, इन दवाइयों को लंबे समय तक लेने से शरीर पर खराब असर पड़ता है।

संतान न होने के कारण उपचार के लिए आई दंपति में पुरुष में शुक्राणु की कमी या अभाव बांझपन का एक प्रमुख कारण होता है। परन्तु समाज की प्रथानुसार हमेशा महिला को ही रोगी मान लिया जाता है।

आज विज्ञान ने हमें कई जानलेव बीमारियों से बचाव के लिए टीके /वैक्सीन उपलब्ध करा दिए हैं। परन्तु दुर्भाग्य बस देश के कई हिस्सों में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में लोग बच्चों को वैक्सीन नहीं लगवाते। उनका मनना है कि इनमें से कई बीमारियां दैवीय प्रकोप या भगवान की इच्छा है। यही कारण है जिससे चेचक (स्मॉल पॉक्स) को दशकों तक दैवीय प्रकोप माना जाता रहा। एवं ग्रामीणों द्वारा चेचक के टीके का विरोध किया गया।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में मानसिक रोगों एवं मिर्गी जैसे रोगों का बहुत अच्छा इलाज उपलब्ध है। फिर भी प्रायः देखा गया है कि लोग इस प्रकार के रोगों को दैवीय प्रकोप मानकर झाड़ फूंक, जादू टोना, एवं पीर फकीर से इलाज करवाने को प्राथमिकता देते हैं। वे इलाज के रूप में ताबीज देना, भभूती (अनुष्ठान/हवन आदि की राख) देना आदि गैर वैज्ञानिक तरीके अपनाते हैं। कई स्थानों पर तो मिर्गी के झटके आने पर लोग मरीज को इलाज के तौर पर गंदे जूते या मोजे सुंघाने जैसे घृणित तरीके बताते हैं। साथ ही मिर्ची जलाकर रोगी को धूनी देना, एवं गर्म धातु की रॉड से शरीर को दागने जैसे खतरनाक कृत्य भी किए जाते हैं।

खून की कमी/एनीमिया के मरीजों में अक्सर यह भ्रांति पाई जाती है कि, लाल रंग के फल एवम सब्जियों जैसे चुकंदर के जूस और अनार का जूस आदि के सेवन से खून की कमी दूर हो सकती है।

स्वास्थ्य पर अंधविश्वास के मिले जुले प्रभाव
कुछ मनोविकार एवं अज्ञात कारणों से होने वाली बीमारियों को अक्सर भाग्य जनित व्याधि या दैवीय प्रकोप मान लिया जाता हैं। इन प्रकोपों को शांत करने के लिए जादू टोना, झाड़ फूंक या अन्य अनुष्ठान आदि में कई लोग विश्वास रखते हैं। इससे बीमारी के नियंत्रण का भ्रम पैदा हो सकता है या किया जाता है।
इससे निम्नांकित लाभ हो सकते हैं…
अनिश्चितताओं और खतरों की स्थिति में सुरक्षा और सांत्वना, आत्मिक संतुष्टि और भावनात्मक शांति आदि मिलना।
उन चीजों के लिए काल्पनिक स्पष्टीकरण मिलना, जो हमें समझ में नहीं आतीं।
कुछ मनोवैज्ञानिक लाभ, जिससे बीमारी के नकारात्मक प्रभाव में कमी देखी जाती है।

साथ ही दैवीय दंड या पाप पुण्य की धारणा “जिसका तात्पर्य है, कि देवी देवताओं द्वारा लोगों को अपराधों या नियमों का उल्लंघन करने के लिए दंडित किया जाएगा। यह विश्वास विभिन्न धर्मों और संस्कृतियों में व्यापक रूप से देखा जाता है, जो अक्सर सामाजिक व्यवहार को आकार देने और सहयोग को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
ठीक इसी तरह यह धारणा बीमार व्यक्ति को वैज्ञानिक दिशानिर्देशों का पालन करने के लिए प्रेरित और अनुशासित कर सकती है।
मनोबल बढ़ाकर आंतरिक होमियोस्टेसिस में मदद कर सकती है। अज्ञात कारणों से होने वाले एंडोक्राइन विकारों के नियंत्रण में सहयोगी हो सकती है।
हालांकि यह सब केवल प्लेसीबो इफेक्ट की तरह होता है, एवं
कभी कभी इन धारणाओं से अवसाद और तनाव भी पैदा हो सकता है। इसलिए इन सभी के चक्कर में न पड़कर, प्रामाणिक चिकित्सा को प्राथमिकता देना चाहिए।

मधुमेह का उपचार वैश्विक स्तर पर सामाजिक और आर्थिक बोझ से जुड़ा हुआ है। विभिन्न अध्ययनों के अनुसार विश्वास-आधारित दृष्टिकोण जैसे कि धार्मिक प्रथाएं एवं आध्यात्मिक क्रियाकलाप और स्वास्थ्य परिणामों के बीच एक सकारात्मक संबंध है। परन्तु इस विषय पर और सटीक शोधों की आवश्यकता है।
यह विशेष रूप से मधुमेह जैसी स्वास्थ्य समस्याओं में मरीज को संयमित आहार विहार के लिए प्रेरित कर मधुमेह नियंत्रण में सहयोगी हो सकता है।

निष्कर्ष
स्वास्थ्य से संबंधित गलत जानकारी जानलेवा भी हो सकती हैं। इसलिए, चिकित्सकों और मरीजों का इन अंधविश्वासों को समझना महत्वपूर्ण है, ताकि गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित की जा सके।
आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था में उपचार के लिए निरंतर शोध व वैज्ञानिक साक्ष्यों के आधार पर दवाईयां एवं उपचार पद्धतियां विकसित की जाती हैं। इसीलिए यह उपचार पद्धतियां सबसे ज्यादा विश्वशनीय, प्रभावकारी एवम् सुरक्षित मानी जाती हैं। हम पाठकों से यही चाहेंगे कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति पर भरोसा करें व अंधविश्वासों के चक्कर में अपनी बीमारी को बिगड़ने न दें।

Authors
Dr. Jaideep khare
Dr. Saumya Gupta
Dr. Sushil Jindal

यह तो घर का बना है

हमारी जिंदगी का वह सब से कड़वा दिन था जब डॉक्टर ने हम से कहा कि आप की शुगर बहुत हाई हो गई है अब मीठा खाना बंद करना पड़ेगा। हमारे तो होश उड़ गए। बताइए, एक हिन्दुस्तानी व्यक्ति को आपने फरमान सुना दिया कि मीठा खाना बंद कर दे? मीठे के बिना जीना भी कोई जीना है? पर क्या करते ? घर वालों ने भी सारी मीठी वस्तुएँ हम से छुपा कर रखनी और खानी शुरू कर दी। हमारी जीभ ही नहीं आँखें भी मीठी वस्तुएँ देखने को तरस गईं। हमारी हालत उस प्रेमी की भाँति हो गई जिसे उसकी प्रेमिका से मिलने की मनाही हो गई हो। लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, आदि प्रेमी जनों के दर्द को अब हम अपने दिल में महसूस कर रहे थे।

खैर! डॉक्टरों की चेतावनी और घर वालों का कड़ा रूख धीरे-धीरे असर करने लगा। हम जलेबी, रसगुल्ले, मालपूए का स्वाद ठीक उसी तरह भूलने लग गए जैसे हारा हुआ प्रेमी अपनी प्रेमिका के चेहरे को भुलाने की व्यर्थ कोशिश में लगा रहता है। हमारे घर वाले भी उसी तरह खुश हो रहे थे जैसे हारे हुए प्रेमी के घर वाले मन ही मन यह सोच कर प्रफुल्लित होते हैं कि चलो अब लड़का लाइन पर आ गया है, मगर दिल ही दिल में यह सोचकर डरते रहते हैं कि यह नादान कहीं सीता मैया की तरह हमारी खींची लक्ष्मण रेखा पार न कर जाए। इसीलिये घर में ही नहीं ब्याह – शादी, पार्टी वगैरह में हम पर गिद्ध नज़र रखी जाती, इन लोगों की इन्ही बेजा हरकतों की वजह से हमारे चेहरे पर लाचारी का भाव परमानेंट होता जा रहा था।

इस लाचारगी के भाव का हमें एक बहुत बड़ा सामाजिक लाभ प्राप्त होने लगा, ठीक वैसे ही जैसे आप को बचत पूँजी पर ब्याज मिलता है। हमारी लाचारगी को देखकर लोग हम से खूब सिम्पेथी यानि दयाभाव रखने लगे। जहाँ जाते लोग मीठे का सब्सीट्यूड ढूंढ़ने में लग जाते, उन भोले प्राणियों को यह समझ में नहीं आता था कि मीठे का स्थान कौन ले सकता है? यह तो हमारे भोजन में भगवान का स्थान रखता है। एकदम उच्च। सर्वोच्च।

लेकिन हमारे शुभेच्छुओं में कुछ ऐसे भी हैं जो हमारे सामने कचौड़ी- समोसा, रसगुल्ला, जलेबी परोस कर बड़े प्रेम से आग्रह करते, ‘अरे खा लो इससे कोई नुकसान नही होगा, यह तो सब घर में बना है, बाहर से कुछ भी नही मँगवाया है, हमें मालुम है तुम्हे शुगर की बीमारी है, तुम्हे तला हुआ और मीठा खाने की मनाही है–‘

जब हम उनकी बात काट कर कहते, ‘अजी घर का हो या बाहर का, है तो तला हुआ और मीठा’। पूछने को बहुत मन होता – ‘क्यों जी, क्या आपका तेल तेल नहीं पानी है, क्या आप के यहाँ की शक्कर मीठी नहीं – नमकीन होती है?’ मगर चुप्पी लगा जाते।

हमें चुप देख वह पुनः आग्रह करते, ‘बताया न! इससे नुकसान नहीं होगा, यह घर का बना है, हमने इतनी मेहनत से बनाया है, अब खा भी लो- कुछ नही होगा तुम्हे….’

‘कुछ नहीं होगा,’ शब्द हमारे दिल पर तीर की तरह चुभ गये! वातावरण को हल्का करने के लिए हमने हंस कर कहा- ‘यह क्या गारण्टी है कि हमे कुछ नहीं होगा? हम हाई शुगर से मर गये तो?’

सुनते ही मेजबान नाराज हो गये। बोले, ‘वाह, आज तक कोई मीठा खाने से मरा है क्या? हम ने तो तुम्हारे लिये इसलिए यह सब बनाया क्यों कि हमें डायबेटिक लोगों पर बड़ी दया आती है। देखो न, बाकी सब बीमारियों में मीठा खाने पर रोक नहीं होती, एक यह ही ऐसी बीमारी है जो बंदे को तरसा-तरसा कर मारती है। कितना दिल दुखता है यह देखकर कि जब सब लोग मीठा और तला हुआ लपालप भकोस रहे होते हैं शुगर वाला बंदा बेचारा भूखे भिखारी की तरह उन्हें देख रहा होता है। मीठे के लिए कोई इतना तरस कर दुनिया से जाए हम से तो नहीं देखा जाता। इसीलिए तो हम तुम्हे खिला रहे हैं ताकि तुम्हारी आत्मा तृप्त हो कर दुनिया से जाए—,

मैं भोचक्का हो उनकी तरफ देख रहा था। अचानक मुझे लगा कि मैं विश्वामित्र हूँ और वह मेनका, जो मेरी मीठा खाने की तपस्या को भंग करने के लिए भाँति-भाँति के प्रलोभन दे रही है, या कि यह आजमा रही है कि मैं उनके मोहक जाल में फंसता हूँ या नहीं। स्थिति गंभीर थी। मीठा देखकर जीभ लपलपा रही थी, सैलाइवा मुख में समा नहीं रहा था। मेरी अतृप्त आत्मा हाथ पसारे खड़ी थी। मगर मेरे घर वालों की आँखे मुझे घूर रही थीं। डॉक्टर की चेतावनियाँ सिर पर तलवार बन लटक रही थीं। मेजबान की मनुहार बड़ती जा रही थी। उनके मंत्रजाप की आवाजें लगातार कानों में बज रहीं थीं-

घर का बना है, खालो कुछ नहीं होगा,
घर का बना है, खालो कुछ नहीं होगा —

मैं तो कानों पर हाथ रखकर, सिर पर लटकी तलवारों से बचता-बचाता उनके घर से भागा ।

आप को भी सलाह दे रहा हूँ, जहाँ आप को यह कह-कह कर खिलाया जा रहा हो- ‘घर का बना है खा लो, कुछ नहीं होगा–‘, वहाँ से सिर पर पैर रख कर भागने में ही भलाई है।

सुमन ओबेराय
डी-2001, शापूरजी पालोनजी विसिनिया,
चांदिवली फार्म रोड,
मुंबई – 400072

सोशल मीडिया का स्वास्थ्य पर प्रभाव

सोशल मीडिया (एसएम) सोशल नेटवर्किंग साइट्स और एप्लीकेशन को कहा जाता है, जहां पर व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक प्रोफाइल या अकाउंट बनाए जा सकते हैं। एवं विभिन्न संपर्कों का नेटवर्क बनाया जा सकता है। इस नेटवर्क जरिए सोशल मीडिया हमें ऑडियो वीडियो, एवं लिखित रूप में बातचीत और संवाद करने की सुविधा प्रदान करता है। उदाहरण के तौर पर यूट्यूब, व्हाट्सएप, फेसबुक, ट्विटर (x), इंस्टाग्राम, टेलीग्राम आदि विभिन्न ऑनलाइन सेवाएं। इनकी सहायता से हम कितनी भी दूर रहते हुए अपनों एवं अन्य लोगों से जुड़े रह सकते हैं। यह बात और है कि इनकी कुछ खास सुविधाओं जैसे वीडियो, ऑनलाइन गेम आदि की लत लगने से लोग परिवार एवं वास्तविक दुनिया से दूर होकर सोशल मीडिया के आभासी जगत में खोते जा रहे हैं।

सोशल मीडिया जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करता है। इसने संपर्क और संवाद को सरल एवं बहुत तेज बना दिया है। यह अपनी व्यापकता और तेज गति के कारण सूचनाओं और संवादों को पलक झपकते ही दुनिया में कहीं भी भेज सकता है और फैला सकता है। इसकी सहायता से जितनी सरलता एवं तेजी से उपयोगी जानकारियां साझा की जा सकती हैं, उतनी सरलता एवं तेजी से गलत एवं भ्रामक सूचनाएं तथा जानकारियां भी फैलाई जा सकती हैं। गलत जानकारियों से समाज में झगड़े और दंगे आदि का खतरा हो सकता है, वहीं स्वास्थ्य संबंधी गलत जानकारी रोगियों के लिए जानलेवा हो सकती है।

हाल के आंकड़ों के अनुसार, वैश्विक आबादी के 3.81 अरब लोग कम से कम एक सोशल नेटवर्किंग साइट पर अपना खाता बनाए रखते हैं, एवं दुनिया भर के इंटरनेट उपयोगकर्ता सोशल नेटवर्किंग साइट पर प्रतिदिन औसत 144 मिनट बिताते हैं।

सोशल मीडिया की ताकत उपयोग के आधार पर सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की हो सकती है। अतः हम यहां सोशल मीडिया के स्वास्थ्य पर प्रभाव की चर्चा करेंगे।

आज के जमाने में हमारे संवाद दोनों तरीके प्रत्यक्ष और सोशल मीडिया प्रचलित हैं। सोशल मीडिया पर होने वाले संवाद सरल एवं तेज तो होते हैं, पर इसमें भावनात्मक अभिव्यक्ति अस्पष्ट होती है। सोशल मीडिया पर होने वाली वायरल खबरें जीवन में उथल पुथल के साथ अनचाही प्रतिस्पर्धा, देखा देखी वाली अपेक्षाएं और तनाव को बढ़ाती हैं। यह तनाव हमारी न्यूरोनल गतिविधि और जीन अभिव्यक्ति में स्थायी परिवर्तन को ट्रिगर कर सकती है। हमारे मस्तिष्क में हाइपोथैलेमस एक न्यूरोएंडोक्राइन रिले केंद्र के रूप में कार्य करता है, जो तनाव की प्रक्रिया को नियोजित करता है। अतः हमारा एंडोक्राइन सिस्टम और नर्वस सिस्टम साथ मिलकर
हमारे मूड, विकास, मेटाबॉलिज्म, होमियोस्टेसिस और हमारे अंगों के काम को नियंत्रित करते हैं। अतः सोशल मीडिया से उत्पन्न तनाव हमारे मस्तिष्क से होते हुए सारे शरीर को प्रभावित कर सकता है।

फैबोन ज़ोगांग ने अपने लेख “ट्विटर कंटेंट में साइकोमेट्रिक संकेतकों के दैनिक उतार-चढ़ाव” में बताया है कि, सोशल मीडिया उपयोग का पैटर्न भी सर्केडियन लय से प्रभावित होता है। सर्केडियन ताल (Circadian Rhythm) एक प्राकृतिक, दैनिक चक्र है जो शरीर की जैविक प्रक्रियाओं को नियंत्रित करता है। यह लय हमें बताती है कि कब सोना है और कब जागना है, और यह हमारे शरीर के तापमान, हार्मोन, पाचन और अन्य शारीरिक कार्यों को भी प्रभावित करती है।
यह लय मस्तिष्क में एक आंतरिक घड़ी द्वारा नियंत्रित होती है, जिसे सुप्राचियास्मेटिक न्यूक्लियस (SCN) कहा जाता है।
प्रकाश, अंधेरा, भोजन, तनाव और तापमान जैसे कारक सर्केडियन लय को प्रभावित करते हैं। अतः सोशल मीडिया और न्यूरोएंडोक्राइन सिस्टम एक दूसरे को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह से प्रभावित करते हैं। इसलिए सोशल मीडिया के प्रभाव को समझना हमारे समग्र स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण हैं।

व्हाट्सएप मैसेंजर सबसे लोकप्रिय मैसेजिंग एप्लिकेशन है, इसके दुनिया भर में 2 अरब से अधिक उपयोगकर्ता हैं। बहुत लोकप्रिय होने के कारण, कई विवादों और आलोचनाओं के रूप में एक कीमत भी चुकानी पड़ती है, अतः यह कुछ देशों में प्रतिबंधित है। व्हाट्सएप को समय-समय पर इसे और अधिक सुरक्षित और यूजर फ्रेंडली बनाने के लिए अपडेट किया जाता है, जैसे कि गलत जानकारी के प्रसार को प्रतिबंधित करना, मैसेज फॉरवर्ड पर सीमा लगाना और इसे एंड टू एंड एन्क्रिप्शन के साथ और अधिक सुरक्षित बनाना।

इंटरनेट के लगभग 80% उपयोगकर्ता स्वास्थ्य जानकारी ऑनलाइन ढूंढते हैं। विशेष रूप से, आहार, पोषण, व्यायाम, बीमारी के लक्षण, उपचार की जानकारी आदि ऑनलाइन ढूंढना कुछ सामान्य उदाहरण हैं।

मधुमेह दुनिया भर में सबसे आम बीमारियों में से एक बन गया है। वेनवेन कोंग ने अपने अध्ययन में बताया कि टिकटॉक पर मधुमेह संबंधित ठीकठाक जानकारियां उपलब्ध हैं, लेकिन यह अधूरी है। इसलिए, मधुमेह से संबंधित अधूरी जानकारी के स्रोत के रूप में टिकटॉक का उपयोग करते समय सावधानी बरतनी चाहिए। इसके अलावा, मधुमेह के लिए ब्लू सर्कल जैसे फेसबुक समूह हैं, जो मधुमेह से पीड़ित लोगों को मधुमेह देखभाल पर प्रश्न, उत्तर और टिप्पणियों के साथ बातचीत करने का अवसर देते हैं।
सोशल मीडिया पर स्वास्थ्य संबंधित जानकारियों पर ब्लॉग, एवं ऑडियो वीडियो आदि कंटेंट प्रस्तुत करने वाले ऑनलाइन इनफ्लुएंसारों की संख्या में काफी इजाफा हो रहा है।
ब्लैकमोर ने अपने अध्ययन में बताया कि, ट्विटर और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफ़ॉर्म प्रजनन एंडोक्रिनोलॉजी और बांझपन विशेषज्ञों के बीच लोकप्रिय हो रहे हैं, और बढ़ती बांझपन दरों के कारण प्रजनन संबंधी वेब स्पेस अधिक सक्रिय हो रहे हैं। क्वास एएम एवं उनकी टीम के अनुसार सोशल मीडिया पर भ्रामक और गलत जानकारियां चिंता का विषय हो सकती हैं, लेकिन सोशल मीडिया वास्तविकता है और रहने वाली है। इसलिए चिकित्सकों को निष्क्रिय पर्यवेक्षक न बनते हुए, ऑनलाइन बातचीत में सक्रिय रूप से भाग लेना चाहिए और सटीक जानकारी प्रदान करना चाहिए

सोशल मीडिया के सकारात्मक प्रभाव

स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव के लिए सोशल मीडिया का उपयोग एक प्रभावी मध्यस्थ के रूप में किया जा सकता है।
इसके लिए सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्मों जैसे, व्हाट्सएप, फेसबुक, इंस्टाग्राम आदि पर नेटवर्क के माध्यम से चिकित्सक, केयरटेकर, एवं समान बीमारियों से पीड़ित कई मरीज आपस में जुड़े रह सकते हैं। इस नेटवर्क के जरिए चिकित्सक की निगरानी में उचित सलाह, गुणवत्ता पूर्ण जानकारियां, संतुलित आहार विहार, व्यायाम, एवं स्वस्थ जीवन शैली अपनाने को प्रेरित करने से संबंधित गतिविधियां एवं बातचीत की जा सकती है। यह बीमारियों के बारे में उचित एवं सटीक जानकारी के साथ सामाजिक अलगाव को दूर करने में मददगार हो सकता है। मरीजों एवं परिजनों को गंभीर परिस्थितियों से निपटने के लिए मनोबल भी प्रदान करता है।
नीचे सोशल मीडिया के सकारात्मक उपयोग कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं…
बचपन में बढ़ते मोटापे की समस्या से निपटने के लिए
राहेल ग्रूवर और उनकी टीम ने मोटापे से पीड़ित बच्चों की माताओं के लिए फेसबुक पर ग्रुप बनाकर काफी सकारात्मक प्रयास किए।
सुंगक्यू पार्क के अनुसार फेसबुक पर यूजर की गतिविधियां उसकी मानसिक स्थिति जैसे डिप्रेशन आदि की स्थिति को प्रकट करती हैं।
फैसल एस मलिक के अध्ययन के अनुसार टाइप 1 मधुमेह वाले किशोरों ने मधुमेह के प्रभावी नियंत्रण और प्रबंधन के लिए अपनी मधुमेह देखभाल टीम के साथ सोशल मीडिया पर जुड़ने की इच्छा व्यक्त की।
वियोलेटा आयोटवा ने अपने अध्ययन में बताया कि विभिन्न शोध और सर्वेक्षण आधारित बीमारियों की वर्तमान जानकारी सोशल मीडिया के जरिए सरलता एवं तेजी से साझा की जा सकती है। अतः सोशल मीडिया कई एंडोक्राइन समस्याओं के बारे में शिक्षण गतिविधियों की आगे की योजना और निष्पादन के लिए एक ठोस आधार प्रदान करता है।
उदाहरणतः एड्रिनल, पिट्यूटरी एवं थायरॉयड विकारों के लिए यूरोपीय रेफरेंस नेटवर्क ऑन रेयर एंडोक्राइन कंडीशंस (एंडो-ईआरएन) जैसे प्रमाणित और प्रतिष्ठित मंचों/संस्थानों का उपयोग करके विकारों एवं लक्षणों की पहचान की जा सकती है।
शारीरिक निष्क्रियता एक वैश्विक चुनौती है, और इसे वैश्विक मृत्यु दर के चौथे प्रमुख कारक के रूप में पहचाना गया है। इसके विपरीत, शारीरिक गतिविधि को हर उम्र और अवस्था में स्वास्थ्य को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने के लिए सबसे प्रभावी तरीकों में से एक के रूप में प्रकट किया है।
शारीरिक सक्रियता, व्यायाम आदि कैंसर, उच्च रक्तचाप, टाइप 2 मधुमेह, कोरोनरी हृदय रोग, न्यूरोलॉजिकल विकलांगता और मानसिक विकारों से पीड़ित लोगों को लाभान्वित करता है। हेक्टर जोस ट्रिकास-विडाल एवं उनकी टीम ने अपने अध्ययन में पाया कि फिजिकल फिटनेस इनफ्लुएंसर लोगों ने इंस्टाग्राम के माध्यम से स्वस्थ जीवन शैली का पालन करने के लिए कई व्यक्तियों को प्रेरित और उत्साहित किया है।
जोहाना के. होरे के अनुसार हेल्थ वर्कर्स और इन्फ्लूएंसर्स इंस्टाग्राम पर वजन पर ध्यान केंद्रित किए बिना स्वस्थ जीवन शैली को चित्रित करने के लिए माइंडफुलनेस और संतुलित आहार पर ध्यान केंद्रित करते हैं। इस प्रकार सोशल मीडिया द्वारा स्वास्थ्य और पोषण संबंधी सांस्कृतिक, समावेशी, और प्रमाणित जानकारी प्रसारित की जाती है।

नकारात्मक प्रभाव

सोशल मीडिया के कई लाभ हैं लेकिन इसके कई संभावित नकारात्मक प्रभाव भी हैं। खासकर युवा लोगों पर, जैसे कार्यक्षमता में कमी, नींद में व्यवधान, निष्क्रियता, सामाजिक अलगाव, साइबरबुलिंग, आत्मघाती विचार और सहानुभूति में कमी सहित प्रतिकूल मानसिक प्रभाव शामिल हैं।
गलत जानकारी का प्रसार हाल का नहीं है यह प्रिंट मीडिया के जमाने से ही है। पर इंटरनेट के विकास ने इसके के प्रसार को तेज, सरल और सस्ता कर दिया है, साथ ही इस पर कोई प्रभावी नियंत्रण भी नहीं है। 2013 में, विश्व आर्थिक मंच ने चेतावनी दी थी कि संभावित ‘डिजिटल जंगल की आग’ जानबूझकर या अनजाने में भ्रामक जानकारी के ‘वायरल प्रसार’ का कारण बन सकती है (विश्व आर्थिक मंच, 2013)।

प्रिंट मीडिया की अपेक्षा सोशल मीडिया और इंटरनेट जानकारियों को प्रसारित करने का सहज, सरल, बहुत तेज, और सस्ता माध्यम होने के कारण हर किसी की पहुंच में है। इसकी यही खूबी इसे नियंत्रण से बाहर होने की ताकत देती है। अतः सोशल मीडिया पर फैलने वाली गलत जानकारियों को रोकना कठिन होता है। कई गलत जानकारियां रेगुलेटरी संस्थाओं द्वारा जब तक प्रतिबंधित की जाती हैं तब तक यह व्यापक स्तर पर लोगों को प्रभावित कर चुकी होती हैं। साथ ही पुराने सोर्स से नष्ट की गई जानकारी कई अन्य नए सोर्सेस से बार बार प्रसारित होती रहती है। जो भ्रम कभी स्थानीय रूप से फैलता था अब वह तेजी से वैश्विक हो सकता है। गलत जानकारी बार बार देखने पर लोग उसे सच मानने लगते और प्रभावित हो जाते हैं। और बड़े स्तर पर इसका व्यवहार और आदत में आने का भी खतरा होता है।

स्वास्थ्य से संबंधित सोशल मीडिया पर देखी जाने वाली आम गलत जानकारी टीकों, संक्रामक रोगों, क्रोनिक बीमारियों और आहार, पोषण और व्यायाम जैसे अन्य विषयों के इर्द-गिर्द घूमती है। आमतौर पर, इस गलत जानकारी का अधिकांश भाग उन व्यक्तियों से आता है जो विभिन्न सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर राय को प्रभावित करने में अत्यधिक सक्रिय होते है। अफवाहें अक्सर साक्ष्य-आधारित जानकारी की तुलना में अधिक लोकप्रियता हासिल करती हैं। सोशल मीडिया आजकल कई बेरोजगार लोगों के लिए कमाई का माध्यम भी बना हुआ है, कई लोग प्रसिद्धि पाने, पैसा कमाने के लिए सोशल मीडिया पर सक्रिय रहते हैं। इन्हीं में से कई लोग अप्रमाणित, और गलत जानकारियां प्रसारित करने से भी गुरेज नहीं करते। इसलिए बड़े पैमाने पर लोग अक्सर भ्रामक और गलत प्रचारों का शिकार होते रहते हैं।

2012 में प्रसिद्ध पत्रिका “वैक्सीन” द्वारा वैक्सीनेशन में इंटरनेट उपयोग की भूमिका’ के लिए एक विशेष अंक प्रस्तुत किया, जिसमें एंटी-वैक्सीनेशन मूवमेंट और सार्वजनिक स्वास्थ्य पेशेवरों द्वारा उपयोग की जाने वाली कुछ संचार रणनीतियों का विश्लेषण किया गया। इसमें पाया गया कि दुष्प्रभावों के बारे में गलत जानकारी के कारण सरकार या दवा कंपनियों में अविश्वास, वैक्सीनेशन के विरोध का एक प्रमुख कारण है।

लियोंग और उनकी टीम के अनुसार संक्रामक रोग, पुरानी बीमारियों जैसे कैंसर, हृदय रोग, मधुमेह जैसी अंतःस्रावी बीमारियों, मोटापा और थायरॉयड विकारों पर गलत जानकारी अनजाने में नहीं फैलाई जाती, बल्कि यह वैकल्पिक उपचारो, जड़ी बूटियों, झाड़फूंक आदि अटकलों पर अंधविश्वास के कारण अधिक वायरल होती हैं।

कई बार सोशल मीडिया के साथ, व्यक्ति में आभासी अपेक्षाएं विकसित हो जाती हैं, जो उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं।
जैसे कि जीवन से उदासीनता, जो कि सैटिसी ने 2019 में वर्णित किया है।
अकेलापन, जैसा कि ब्लाचनियो एट अल ने 2016 में अपनी शोध में बताया है।
शैक्षिक प्रदर्शन, जैसा कि अल-याफी एट अल ने 2018 में वर्णित किया है।
आत्मविश्वास के कमी, जैसा कि हावी और समाहा ने 2017 में अपनी शोध में बताया है।
कई लोग अपनी शारीरिक छवि को लेकर समाज की नकारात्मक टिप्पणी होने के डर से विभिन्न हार्मोन संबंधी इलाज के लिए गुपचुप रूप से सोशल मीडिया के नुस्खे अपनाने लगते हैं।
रॉयल सोसाइटी फॉर पब्लिक हेल्थ और यूके के यूथ हेल्थ मूवमेंट द्वारा किए गए शोध के अनुसार, इंस्टाग्राम को युवा लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर इसके प्रभाव के मामले में सबसे नकारात्मक रूप से प्रभावित करने वाला एसएम प्लेटफ़ॉर्म माना जाता है।

मस्तिष्क का भावनात्मक सर्किट जटिल है जिसमें मुख्य रूप से प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स, एमिग्डाला, हिप्पोकैम्पस, फ्रंटल सिंगुलेट कॉर्टेक्स और इंसुलर कॉर्टेक्स, साथ ही न्यूरोट्रांसमीटर जैसे डोपामाइन, सेरोटोनिन, नॉरपेनेफ्रिन, मेलाटोनिन और एंडोर्फिन शामिल हैं। मस्तिष्क का एक नेटवर्क है जो खुशी, प्रेरणा और सीखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

डोपामाइन एक न्यूरोट्रांसमीटर है जो न्यूरोलॉजिकल और शारीरिक कामकाज में शामिल न्यूरॉन्स के बीच एक रासायनिक संदेशवाहक है। सभी सुखद अनुभव, एक अच्छा भोजन खाने से लेकर सेक्स करने तक, डोपामाइन की रिलीज का कारण बनते हैं। इसलिए भी, डोपामाइन रिलीज कुछ चीजों की लत लगाने का कारण है, जैसे कि दवाएं, जुआ, खरीदारी और सोशल मीडिया का उपयोग करना।

कुछ लोग जब फेसबुक, स्नैपचैट, इंस्टाग्राम या अन्य सोशल मीडिया प्लेटफार्मों के साथ जुड़ते हैं, और एक लाइक, एक रीट्वीट या एक इमोटिकॉन अधिसूचना प्राप्त करते हैं जो ब्रेन रिवॉर्ड प्रणाली को सक्रिय करते हैं और एक डोपामाइन लूप बनाते हैं। इससे डोपामाइन का स्तर बढ़ जाता है । यह खुशी और संतुष्टि का चक्र सोशल मीडिया उपयोगकर्ताओं को इसका आदी बनाने के लिए प्रेरित करता है।

चिकित्सा पेशा और सोशल मीडिया

सोशल मीडिया अब दैनिक जीवन का एक आधार है, और चिकित्सा पेशेवर भी इससे अछूते नहीं हैं। चूंकि सोशल मीडिया के नकारात्मक और सकारात्मक दोनों प्रभाव हो सकते हैं, इसलिए इसके दुरुपयोग को रोकना महत्वपूर्ण है। भारत में सोशल मीडिया के उचित उपयोग को लागू करने के लिए, राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (एनएमसी) ने चिकित्सा पेशेवरों के बीच आचार संहिता को नियंत्रित करने के नियम दिए हैं

  1. चिकित्सा पेशेवर सोशल मीडिया पर जानकारी और घोषणाएं प्रदान कर सकते हैं, लेकिन जानकारी तथ्यात्मक और सत्यापित होनी चाहिए। यह भ्रामक नहीं होनी चाहिए या रोगी के ज्ञान की कमी का फायदा नहीं उठाना चाहिए।
  2. चिकित्सा पेशेवर सार्वजनिक सोशल मीडिया पर रोगी के उपचार या दवा का पर्चा लिखने से बचें।
  3. चिकित्सा पेशेवरों को सोशल मीडिया पर रोगियों की तस्वीरें या स्कैन छवियां पोस्ट करने से रोकता है क्योंकि यह बाद में सोशल मीडिया कंपनी या आम जनता के स्वामित्व वाला डेटा बन जाता है।
  4. सोशल मीडिया पर चिकित्सा पेशेवरों को अपने सहयोगियों के प्रति पेशेवर व्यवहार एवं चिकित्सा नैतिकता के सामान्य सिद्धांतों का पालन करना चाहिए।
  5. चिकित्सा पेशेवरों को लाइक एवं फॉलोवर’ खरीदने या उच्च रेटिंग के लिए भुगतान करने या सॉफ्टवेयर प्रोग्राम या ऐप के माध्यम से रोगियों को आकर्षित करना आदि प्रतिबंधित है।
  6. चिकित्सा पेशेवरों को सोशल मीडिया पर रोगियों से प्रशंसापत्र, सिफारिशें, समर्थन या समीक्षा अनुरोध करना या साझा करना प्रतिबंधित है।
  7. चिकित्सा पेशेवरों को किसी भी परिस्थिति में ठीक हुए रोगियों की छवियां, सर्जरी / प्रक्रिया वीडियो या प्रभावशाली परिणाम प्रदर्शित करने वाली छवियां साझा करना प्रतिबंधित है।
  8. चिकित्सा पेशेवरों को आम जनता के साथ शैक्षिक सामग्री साझा करने की अनुमति देता है, लेकिन संचार उनकी विशेषज्ञता तक सीमित होना चाहिए।
  9. चिकित्सा पेशेवरों के पास निजी वेब पेज हैं, तो भी उन्हें उपरोक्त दिशानिर्देशों का पालन करना चाहिए।
  10. चिकित्सा पेशेवरों को सोशल मीडिया पर गरिमा और शालीनता के साथ आचरण करने और मर्यादित रहने की सलाह देता है।
  11. सोशल मीडिया के माध्यम से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोगियों का पीछा करना अनैतिक है।

संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह और अंतःस्रावविज्ञान

अनुभूति मानसिक प्रक्रियाओं के लिए एक शब्द है, जिसमें सोच, ध्यान, भाषा, सीखना, स्मृति और धारणा शामिल है, जो हमें कल्पना करने और स्वस्थ व्यक्ति के रूप में कार्य करने की अनुमति देती है। लोग निर्णय लेते समय अक्सर सामान्य सूचनाओं और अनुमान का उपयोग करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप त्रुटियां हो सकती हैं, जिन्हें संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह कहा जाता है। इस प्रकार, सोशल मीडिया संज्ञानात्मक पूर्वाग्रह का कारण बन सकता है, जो कई प्रकार के हो सकते हैं जैसे कि एंकरिंग पूर्वाग्रह, उपलब्धता पूर्वाग्रह, पुष्टिकरण पूर्वाग्रह, पश्चदृष्टि पूर्वाग्रह, चूक पूर्वाग्रह, परिणाम पूर्वाग्रह, अति आत्मविश्वास पूर्वाग्रह, सापेक्ष जोखिम पूर्वाग्रह आदि। या पूर्वाग्रह रोगियों और चिकित्सा पेशेवरों दोनों द्वारा निर्णय लेने को प्रभावित कर सकते हैं।

उदाहरण के लिए, एक माता-पिता एक मीडिया रिपोर्ट देखने के बाद जिसमें एक बच्चे को टीकाकरण के बाद ऑटिज्म विकसित होने की बात कही गई है। अपने बच्चे को टीकाकरण करने से इनकार कर सकते हैं, क्योंकि उनके मन में पूर्वाग्रह विकसित हो जाता कि टीकाकरण का दुष्प्रभाव होता ही है।इसी तरह, सोशल मीडिया पर कई बीमारियों के उपचार के संबंध में कई भ्रामक या गलत सूचनाएं उपलब्ध हैं, जो कई बार रोगी को डॉक्टर द्वारा दी गई सलाह पर संदेह करने और गलत निर्णय लेने का कारण बन सकती हैं।

निष्कर्ष

सोशल मीडिया आजकल हमारे जीवन का अहम हिस्सा बन चुका है। हमने देखा कि यह बहुत उपयोगी होने के साथ, जीवन पर कई नकारात्मक प्रभाव भी डाल सकता है। अतः सोशल मीडिया का उपयोग बहुत सोच समझकर और सावधानी पूर्वक करना चाहिए।

Authors
Dr. Jaideep khare
Dr. Sanjay kalra
Dr. Sushil Jindal

मेटफॉर्मिन

Medications for type 2 diabetes

Medications for Type 2 Diabetes

Type 2 diabetes is a chronic condition that affects how the body processes blood sugar (glucose). While lifestyle changes like a healthy diet and regular exercise are essential, many people also need medications to control their blood sugar levels effectively.

There are several types of medications used to manage type 2 diabetes:

  1. Metformin – This is usually the first medication prescribed. It helps the body use insulin more effectively and reduces glucose production in the liver.
  2. Sulfonylureas – These drugs stimulate the pancreas to release more insulin. Examples include glipizide and glyburide.
  3. DPP-4 Inhibitors – These help increase insulin levels and decrease the amount of glucose made by the liver. Sitagliptin is one common example.
  4. GLP-1 Receptor Agonists – These injectable drugs help slow digestion, reduce appetite, and promote insulin release. Examples include liraglutide and semaglutide.
  5. SGLT2 Inhibitors – These medications help the kidneys remove excess glucose through urine. Canagliflozin and dapagliflozin are examples.
  6. Insulin Therapy – In some cases, insulin injections may be required, especially if blood sugar levels remain high despite oral medications.

It’s important to work with a doctor to choose the right medication based on individual health needs, side effects, and other medical conditions. Regular monitoring and adjustments are often necessary to keep diabetes under control.

The Role of Exercise in Diabetes

Exercise plays a vital role in managing diabetes, especially type 2 diabetes. Regular physical activity helps control blood sugar levels, improves insulin sensitivity, and supports overall health and well-being.

When you exercise, your muscles use glucose (sugar) for energy, which helps lower the amount of sugar in your bloodstream. At the same time, physical activity helps your body use insulin more efficiently. This can reduce the need for medications and lower the risk of diabetes-related complications.

Benefits of Exercise in Diabetes Management:

  1. Improves Blood Sugar Control – Exercise helps lower blood glucose levels during and after activity.
  2. Increases Insulin Sensitivity – Makes your body more responsive to insulin.
  3. Supports Weight Loss – Helps reduce body fat, which is closely linked to better diabetes control.
  4. Boosts Heart Health – Reduces the risk of cardiovascular disease, which is common among people with diabetes.
  5. Enhances Mood and Energy – Regular movement can reduce stress, anxiety, and fatigue.

Types of Recommended Exercises:

Important Tips:

In summary, regular exercise is a powerful tool in diabetes care. With the right plan and guidance, it can significantly improve quality of life and long-term health outcomes. Always consult a healthcare provider before starting a new exercise routine.

Create your healthy-eating plan

A healthy-eating plan is essential for maintaining energy, managing weight, and preventing or controlling health conditions like diabetes and heart disease. It doesn’t mean giving up the foods you love — it’s about making smarter choices and finding balance in your meals.

Why a Healthy-Eating Plan Matters

A well-balanced diet helps:

Steps to Create Your Healthy-Eating Plan

1. Know Your Nutritional Needs
Start by understanding your body’s requirements based on your age, activity level, and health goals. A registered dietitian or doctor can help assess this.

2. Focus on Whole Foods
Include a variety of:

3. Limit Processed Foods and Sugars
Cut back on sugary snacks, fried foods, and processed meats. These can lead to weight gain and increase the risk of diabetes and heart issues.

4. Watch Your Portions
Eating the right amount is just as important as eating the right foods. Try using smaller plates, and avoid eating in front of screens.

5. Stay Hydrated
Drink plenty of water throughout the day. Limit sugary drinks and excessive caffeine.

6. Plan Your Meals
Prepare your weekly meals in advance. This helps you avoid impulsive food choices and saves time.

7. Be Mindful When Eating
Eat slowly and pay attention to your hunger and fullness cues. Mindful eating helps prevent overeating.

Final Thought

Creating a healthy-eating plan is a lifelong commitment to your well-being. Start small, make realistic changes, and enjoy the journey toward better health — one bite at a time.

Diabetes: Symp- toms, Types, and Treatment Options

Diabetes is a chronic health condition that affects how your body turns food into energy. When you eat, your body breaks down carbohydrates into glucose (sugar), which enters your bloodstream. Insulin, a hormone made by the pancreas, helps move this sugar into your cells. In diabetes, the body either doesn’t produce enough insulin or can’t use it properly, leading to high blood sugar levels.


Common Symptoms of Diabetes

Some symptoms may develop gradually and can go unnoticed. Common signs include:


Types of Diabetes

  1. Type 1 Diabetes
    This is an autoimmune condition where the body attacks its own insulin-producing cells. It often appears in childhood or adolescence and requires lifelong insulin therapy.
  2. Type 2 Diabetes
    The most common type, usually developed in adulthood. The body becomes resistant to insulin or doesn’t make enough. It’s strongly linked to obesity, inactivity, and genetics.
  3. Gestational Diabetes
    Occurs during pregnancy and usually disappears after childbirth. However, it increases the risk of developing type 2 diabetes later.
  4. Prediabetes
    Blood sugar levels are higher than normal but not high enough for a diabetes diagnosis. It is a warning sign and can often be reversed with lifestyle changes.

Treatment Options

1. Lifestyle Modifications

2. Medications

3. Blood Sugar Monitoring
Frequent checks help manage diabetes effectively and avoid complications.

4. Managing Complications
Controlling blood pressure, cholesterol, and foot care is essential to avoid long-term issues like heart disease, kidney failure, and nerve damage.

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